Sunday, 28 May 2017

काश मैं एक फूल हो जाती!

काश! मैं एक फूल हो जाती,
किसी हरे-भरे बगीचे में
करीने से सँवरे पौधे की डाल पर,
हवा के झोंकों के साथ झूमती, गुनगुनाती।

अपने रंग और अपनी ख़ुशबू पर इठलाती,
किसी तितली से खूब बतियाती,
ओस की बूंदों में नहाती और
आसमान तले आंखें मूंदकर सो जाती।

किसी रूमानी सुहानी शाम को,
यूँ ही टहलते हुए अचानक,
शायद तुम्हारी नज़र मुझ पर पड़ जाती,
तब तुम मुझ तक चल कर आते, मैं नहीं आती।

तुम एक झटके में तोड़ लेते मुझे,
जीवन के उन अंतिम कुछ पलों में,
तुम्हारी दृष्टि सिर्फ़ मुझ पर होती,
इसी बहाने मैं तुम्हारी हथेलियाँ छू पाती।

जानती हूँ कि कुछ ही क्षणों में ऊब कर
बेदर्दी से तुम मेरी हर पंखुड़ी बिखेर देते,
मैं समूची तुम्हारे क़दमों तले रौंदी जाती,
और कुछ ही देर में भुला भी दी जाती।

पर मेरी पंखुड़ियों का गाढ़ा रंग
नहीं छूटता तुम्हारी अंगुलियों पर से,
मेरी महक बस जाती तुम में
उस एक पल में मैं तुम पर एकाधिकार पाती।

अपना अस्तित्व खोकर मैं तुम्हारी हो जाती,
काश! मैं एक फूल हो पाती।