Monday 21 August 2017

शांत अकेली रात में...

शांत अकेली रात में.........
तुम्हारी तस्वीर से अपनी तस्वीर जोड़ना
एक ख़याल से अपनी सोच जोड़ना
और अपने आप पर हँस देना।
कुछ अनकहे वादों को सुनना
अपनी हथेली पर तुम्हारा नाम लिखना
फिर उसे झेंपकर मिटा देना।
ज़बान पर तुम्हारे शब्दों की मिश्री रखना
मिठास में भी कड़वाहट को अनुभव करना
और उस स्वाद को उगल देना।
दिन में सपनों की डोर को बुनना
शाम पड़े उस डोर से अपनेआप बंधना
फिर रात में उसे समूचा उधेड़ देना।
अक़्सर मिटाने से हथेलियों का लाल पड़ना
उधेड़ने से सोच का और उलझना
और कुछ दिखाई या सुनाई न देना।
रात से सुबह तक बेहोश सा जगना
सुबह टूटे फूटे अधूरे सपनों को समेटना
फिर नियति को मौन स्वीकृति देना।
- अदिति (अदा)

Thursday 10 August 2017

"सुनो"!

आज यादों के एलबम के कुछ पन्ने पलटे
धुंधले चेहरों की भीड़ में तुम दिखाई पड़े।
अपने अंदाज़ में तंज़ कसते हुए तुमने पूछा,
सुनो अदा, आजकल क्या करती हो?

आज भी तुम्हें कोई जवाब नहीं दिया,
न सकपकाई न आँसू कोई छलकने दिया।
पर सोचा आज गिनवा ही दूँ तुम्हें
कि मैं क्या हो गई हूँ और क्या करती हूँ।

"सुनो", मैं दिन भर अपने काम में खटती हूँ,
बिना किसी बैसाखी के ज़ख़्मी पैरों से चलती हूँ।
जो नोच डाले थे तुमने बेदर्दी से एक रोज़,
मैं आजकल उन पंखों पर रोज़ मरहम करती हूँ।

मैं लोगों से मिलती हूँ, हंसती हूँ, मुस्कुराती हूँ,
अपने ज़ख्मों से रिसते ख़ून को बख़ूबी छुपाती हूँ।
तुम्हारे हाथों पर लगे छींटों को हटाने के लिए,
मैं ख़ुद सज़ायाफ्ता मुजरिम सी हो जाती हूँ।

रात भर जागती हूँ, कभी डर के कभी सोच में गुम,
मैं तार तार हुए दिल को रफ़ू करती जाती हूँ।
शब भर यादों में क़ैद और रिहा होते होते, अल सुबह,
मैं तुम्हारे झूठे वादों के लिहाफ ओढ़ सो जाती हूँ।

जब तन्हाई की ठंड से मेरी हड्डियाँ गलने लगती हैं,
मैं ख्वाबों की रज़ाई में एक और पैबन्द लगाती हूँ।
जो सिखाया ज़िन्दगी ने मैं अक़्सर वही सबक़ दोहराती हूँ।
तुम आज भले शर्मिंदा हो, मैं तुम्हें मुआफ़ न कर पाती हूँ।