Saturday, 29 July 2017

'इंतज़ार थोड़ा और सही'

अभी तो कुछ सांसे हैं बाकी, नब्ज़ भी मेरी चलती है,
अभी ये दिल धड़कता है, पलकें भी तो झपकती हैं,
अभी तो मैं मुस्काती हूँ, तुम से दर्द छुपाती हूँ,
अभी तुम मत आ जाना, अभी तक ज़िंदा कहलाती हूँ।

आँखें हैं पर नींद नहीं, कुछ सपनों का साथ है,
तुमने तोड़ा हरपल जिसको, वही ज़ख्मी आस तो है,
एक ही मैं और लाखों हज़ारों, नश्तर जैसी बातें हैं,
सब सुनकर और सहकर, देखो मैं जिये जाती हूँ।

तुम अपने ना हुए कभी, बेगानों से क्या शिक़वा करूँ,
तुम तक राह वो नहीं गई, कोई रास्ता मन्ज़िल ना हुआ,
जाने कब किस रंग से कैसे, तस्वीर तुम्हारी बननी है,
लाखों फैले बिखरे हैं बस पेशनगोई ना समझ पाती हूँ।

कुछ दिन कुछ पल और सही फिर ये साँसें उखड़ेंगीं,
मेरी आस की लड़ियाँ भी तब इक इक करके बिखरेंगी,
तुम ना आना उस पल भी, तुम्हें दुनिया जहान से कहाँ फुर्सत,
उस रोज़ तो रस्म अदा होगी, मैं हर रोज़ ये लाश उठाती हूँ।

भूल जाना उस पल में, मेरी हर आहट और छुअन को तुम,
मैं इक लम्बे सफ़र की ऊब से थककर नए सफ़र की मुरीद हुई,
इंतज़ार थोड़ा और सही, हाँ थोड़ा और सही मत कहना अब,
बहुत हुआ, सुनो! अब मैं उस दुनिया को ही चली जाती हूँ।