Friday, 20 September 2019

यादों के झरोखों से - 01

असुरक्षा, असंतोष, असहिष्णुता। बाप रे! बड़े बड़े शब्द!
आप सबका भी लगभग रोज़ सामना होता होगा इनसे! चलिए इनको पतली गली से निकलने का order देते हुए आज आपके साथ एक सच्चा किस्सा share करती हूँ। पापा के एक जानकार थे (अब नहीं रहे). "सलाम भाई"। काम के सिलसिले में अक्सर अक्सर घर आते जाते रहते थे। अब चूंकि पापा उनको सलाम भाई बुलाते थे, तो पीछे पीछे हम भी सलाम भाई आये हैं, सलाम भाई नमस्ते..... वगैरह वगैरह कहा करते थे।
एक दिन मैंने पूछा - "मीठी ईद कब है?"
उन्होनें पूछा - "क्यों? सिवईयां खानी हैं?"
मैंने कहा -"ना। मीठा? बिल्कुल नहीं।"
वो हंस दिए।
कुछ ही दिन बाद मीठी ईद आई और ठीक ईद वाले दिन (घर और मेहमान छोड़कर) वो अपने स्कूटर पर आये और नीचे से ही आवाज़ लगाई, दौड़कर गई तो मेरे हाथों में स्टील का बड़ा सा टिफ़िन थमा कर बोले - "तुम्हारे लिए, चखना ज़रूर बिट्टो। पापा, मम्मी को नमस्ते कहना, आज जल्दी में हूँ, फिर आऊंगा।" और उनका स्कूटर घर्र घर्र की हमेशा वाली आवाज़ें करता आगे बढ़ चला। ऊपर आकर टिफ़िन खोला तो इलायची की खुशबू फैल गई। माँ के कहने पर taste करने के लिए थोड़ी सी सिवइयां लीं और हैरान रह गई। मीठा कम, किशमिश बिलकुल नहीं (जैसा मुझे पसंद) और ज़ायका? शानदार!
थोड़े दिन बाद वो घर आये तो माँ ने टिफ़िन में चूरमा रखते हुए कहा -"सिवइयों की क्या ज़रुरत थी?" वो बोले "भाभी ज़रुरत तो चूरमे की भी नहीं है, फिर भी आप प्यार से बच्चों के लिए दे रही हैं और मैं इनकार नहीं करूँगा।"
सबके चेहरों पे मुस्कराहट और उसके बाद lunch. और तबसे जब तक वो ज़िंदा रहे, हर साल मीठी ईद पर उनके यहां से सिवइयां आती रहीं और दीपावली पर हमारे यहां से मिठाई जाती रही।
लिखने का मकसद सिर्फ इतना सा है कि मेरे ज़ेहन में वो एक अच्छे शख्स और अच्छी याद के तौर पर ज़िंदा हैं। एक आम भारतीय के तौर पर उनको जितना मज़ा ईद के लज़ीज़ पकवानों को खाने खिलाने में आता था, उतना ही दीवाली पर मिठाइयां और होली की गुझियां खाने में। होली के रंगों और दीपावली के पटाखों से उन्हें ख़ासा लगाव था। हाँ अच्छे बुरे कई लोग मिले, जिनके बारे में बताती रहूंगी पर ये थी एक अच्छी याद, अच्छे इंसान की।
#Memoirs1