Friday, 26 August 2016

आ गयी एक और रात

लो फिर आ गई एक और रात,
कुछ देर में चले आएंगे तुम्हारे ख्याल भी... 
सेहर होने तक यादों का पिटारा खुला रहेगा
और ये सिलसिला मुझे सोने नहीं देगा।


फिर सुबह मेरी सुर्ख आँखों पर तंज़ कसे जाएंगे
मेरे गालों पे सूखे आंसू भी निशाने पर आएंगे।
छुट्टी वाला इतवार फुरसत से तुम्हारी याद दिलाएगा
और कमबख्त उजाला मुझे रोने नहीं देगा।


-अदिति जैन 

बोलो कब कहां मिलोगे!

क्षितिज के पार, 
सुदूर गगन के किसी शांत कोने में 
उड़ते बादल पर

किसी वीराने में 
अंधेरों में खुद से डरते जर्जर हाल
खंडहर की मुंडेर पर

अपनी किरचों से
आँखों के कोनों को कुरेदते सपनों के दिए
ताज़ा घावों पर

या आँखों से झलकती
हृदय की गहराइयों से निकली अधरों पे खिली
मुस्कान पर
बोलो कब कहाँ मिलोगे?

-अदिति जैन 

सीरिया की औरत

“सीरिया की औरत”

मैं सीरिया की औरत हूँ लोगों,
न जाने किस गलती की सज़ा भुगतती हूँ...


रक़्क़ा की गलियों से निकलकर
अलेप्पो तक मैं आई थी,
कुछ ख्वाब सुहाने मोहब्बत के
कुछ रंग हिना के लाई थी।


हाल मेरा बेहाल है अब,
माज़ी मुझपे हंसता है,
आने वाला मुस्तक़बिल,
एक खौफ़ भरा सपना लगता है।


इश्क़ मेरा ख़ून में सनकर
जब इक दिन घर को आया था,
अपने लख़्तेजिगर की ख़ातिर हमने
किया अपना ही मुल्क़ पराया था।


बकलावा, दावूद-बाशा खाता था
आज सूखी रोटी को तरसता है,
ज़िन्दगी तक पहुँचने की ज़िद में
रोज़ इक आयलान कुर्दी यहां मरता है।


हर लम्हा साँसों के ज़रिये
बारूद के ज़हरीले कश लेती हूँ              
आसमान में उड़ते धुएं की कालिख
अपनी आंखों में भर लेती हूँ


फ़रात के ठन्डे पानी में, 
घुलते सुर्ख़ लहू को देखती हूँ,
बैरेल बम के धमाकों में 
टूटते घर और कुछ लोथड़े देखती हूँ। 


बदलेंगे ये मंज़र भी कभी, सोचती हूँ, उम्मीद रखती हूँ 
आप सोच नहीं सकते जो हालात, मैं रोज़ उन्हें जी जाती हूँ,                                  
ज़ब्त बहोत करती हूँ मैं, होठों से कुछ नहीं कहती हूँ, 
मैं सीरिया की औरत हूँ लोगों,
ना जाने किस ग़लती की सज़ा भुगतती हूँ। 
--अदिति जैन