Thursday 10 August 2017

"सुनो"!

आज यादों के एलबम के कुछ पन्ने पलटे
धुंधले चेहरों की भीड़ में तुम दिखाई पड़े।
अपने अंदाज़ में तंज़ कसते हुए तुमने पूछा,
सुनो अदा, आजकल क्या करती हो?

आज भी तुम्हें कोई जवाब नहीं दिया,
न सकपकाई न आँसू कोई छलकने दिया।
पर सोचा आज गिनवा ही दूँ तुम्हें
कि मैं क्या हो गई हूँ और क्या करती हूँ।

"सुनो", मैं दिन भर अपने काम में खटती हूँ,
बिना किसी बैसाखी के ज़ख़्मी पैरों से चलती हूँ।
जो नोच डाले थे तुमने बेदर्दी से एक रोज़,
मैं आजकल उन पंखों पर रोज़ मरहम करती हूँ।

मैं लोगों से मिलती हूँ, हंसती हूँ, मुस्कुराती हूँ,
अपने ज़ख्मों से रिसते ख़ून को बख़ूबी छुपाती हूँ।
तुम्हारे हाथों पर लगे छींटों को हटाने के लिए,
मैं ख़ुद सज़ायाफ्ता मुजरिम सी हो जाती हूँ।

रात भर जागती हूँ, कभी डर के कभी सोच में गुम,
मैं तार तार हुए दिल को रफ़ू करती जाती हूँ।
शब भर यादों में क़ैद और रिहा होते होते, अल सुबह,
मैं तुम्हारे झूठे वादों के लिहाफ ओढ़ सो जाती हूँ।

जब तन्हाई की ठंड से मेरी हड्डियाँ गलने लगती हैं,
मैं ख्वाबों की रज़ाई में एक और पैबन्द लगाती हूँ।
जो सिखाया ज़िन्दगी ने मैं अक़्सर वही सबक़ दोहराती हूँ।
तुम आज भले शर्मिंदा हो, मैं तुम्हें मुआफ़ न कर पाती हूँ।


4 comments:

  1. अद्भुत अभिव्यक्ति... प्रेम था तो माफी भी जरूरी है प्रेम अब भी है तो माफी नहीं दी जा सकती

    ReplyDelete
  2. This is strong enough to make you feel the pain to the bottom most part and realise the past breathing in the future but the present is nowhere.
    By far the most straightforward and realistic poem I've ever come across

    ReplyDelete
    Replies
    1. Thanks a lot for the unconditional love and support.

      Delete